मक़ाम-ए-ज़िन्दगी...

यूँ चलते चलते आज, हम किस मोड़ पर चले आये,
कुछ पाने की खातिर, हम सब छोड़कर चले आये।

चौख़ट-आँगन-दीवारें, हमको सदायें देती रही,
मुशरूफ़ हुए इतने कि, हम बेख़बर चले आये।। 

गुज़रे जिस वक़्त ने सही-बुरे की पहचान कराई,
उस हालात से एक नाता, हम जोड़कर चले आये।

जो सपनों का एक जहान, हमने भी बनाया था,
उस आशियाने को आज, हम रोंधकर चले आये।। 

न दोस्तों का साथ मिला, और न ही उनकी यारी,
फ़िर भी एक आवाज़ में, हम दौड़कर चले आये। 

जो पराया समझते रहे, कुछ अपने ज़िन्दगी भर,
सदा उनसे एक रिश्ता, हम निभाकर चले आये।। 

रात भर आँकते रहे जिनको ख़यालो में अपनी,
वो झूठी तस्वीर उनकी, हम जलाकर आये।

दास्तान-ऐ-मोहब्बत लिखते रहे, स्याह--आंसुओं से,
सदा के लिए उस क़लम को, हम तोड़कर चले आये।। 

उनके जिस महफ़िल को, सदा हम बेग़ाने लगते रहे,
अँधेरी उस शाम को आज, हम रौशन कर चले आये। 

गुज़ारिश की गयी हमसे, जो उनको भूल जाने की,
उनके दिल में खुद को, हम दफ़ना कर चले आये।। 

इस भीड़ में जिसे देखो हर कोई वक़्त का मारा है,
सो खुद ही अपनी कब्र, हम खोद कर चले आये। 

जाने किस मक़ाम पर, ये साँसे हमारी थम जाये,
अब इसका हर क़तरा, हम निचोड़कर चले आये।।