शख़्सियत एक पिताः की....

यूं तो बहुत कुछ है कहने को,
पर चुप-चुप सा वो रहता है। 
अपनों की ख़ुशी का बोझ लिए,
वो हर ग़म को हँसकर सहता है।। 
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बच्चों के सपने सुनहरे कर,
किया वो खुद को काला है। 
धूँप में खुद को रौशन कर,
घर को किया उजाला है।।
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हर ख़ुशी वो अपनी बेचकर,
औक़ात से बढ़कर बड़ा किया। 
भले-बुरे की सीख़ वो देकर,
अपने पेरों पर खड़ा किया।। 
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फ़टे-पुराने हालत में खुद,
वो अरमान हमारे सीता है। 
बच्चों के सपने पूरे कर, 
वो खुद ही अधूरा जीता है।। 
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बयां करे शख़्सियत जिसकी,
ऐसी नहीं कोई कविता है। 
वो शख़्स कोई और नहीं,
सिर्फ-ओ-सिर्फ एक पिताः है।। 
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